Monday, October 31, 2011

एक और प्रकाशोत्सव

वैसे तो दीपावली की शाम
कुछ ज्यादा ही कर जाती है उदास
खुशी से अधिक प्रकाशित होती है कसक
जो होते हैं पास अपने
उनसे ज्यादा खलती है कमी उनकी
जो नहीं होते पास

एक अतिरिक्त प्रकाश
दौड़ाता है अतृप्त मन को
उन अँधेरों में
जहाँ छिपी हैं स्मृतियाँ
हाँफता है, काँपता है मन
कुछ ज्यादा ही दीपावली की रात

घूमता मैं थिरकते, किलकते बाजार में
ग़ालिब की तरह गैरख़रीदार
मुफ़लिसी की मस्ती नहीं
न ही दीवाने-ज़ुनून
नहीं पूछता फुलझड़ियों के भाव
मेरे लिये सूना-सूना सा है
विश्व हो या गाँव

दीपों से झिलमिलाती शाम
यौवनित रात्रि हो जाती है
कम्प्यूटर पर लिखता मैं / वह सब
जो जो इतिहास बनता
महसूसने का
वर्तमान के त्रिशंकु सा
मैं भवितव्य को तरसता
तरसता सपनों के सच होने को
खुशियों की हद होने को

जिसके लिये खरीदता था
कुछ गिन-गिन कर
कुछ छाँट-छाँट कर
कुछ रोशनी, कुछ धमाके
उसके हाथ अब खेलने लगे हैं नश्तर से
दर्द के बिस्तर से लगा
बैठा रहता है अब वह
पोंछने अनजान आँखों के आँसू
और भर आती हैं
उसकी माँ की आँखें
यहाँ राह तकते
इस झिलमिलाती नदी में दिखते
मेरी दीपावली के
तैरते उदास दीप

मेरा हृदय घिर जाता धमाकों में
बहुत बहुत थका सा लौटता
अकेला घिरता जाता मैं
असंख्य दीपों के बीच
अपने दिये को खोजती मेरी आँखें
अटक जातीं एक चादर ओढ़े
मेरी तरह अशान्ति को ओढ़े
मन को दबोचे
एक बचपन पर

योगी सा बैठा एक बचपन
देखता आकाश को विदग्ध करते
असंख्य क्षणिक तारे
दीपों से झिलमिलाते
न जाने किसकी धरती के नज़ारे
घुटनों पर ठुट्ठी टिकाये
समाधिस्थ मन
और मैं बदल जाता आकाश में
दिखने लगते मुझे ऐसे ही समाधिस्थ
नितान्त मेरे टिमटिमाते दीप असंख्य

कम थी पहले मेरे पास
फटाके जुटाने की सामथ्यZ
और अब विभ्रमित है मन
योगियों को बाँटू मुस्कानें
या फिर जुगत जुटाऊँ
दीपधर्म की राह सिखाऊँ
अपने मन को सीखूँ ढकना
बादलों को दूँ विदा

पर कम हैं नश्तर
पकड़ा दूँ जिन्हें ऐसे ही हाथों में
कम हैं आँसू
भर दूँ जिन्हें ऐसी ही आँखों में
संकल्पित जिजीविषा को पालूँ-पोसूँ
समय की धोने कालिख
हाथों से दीपक छोड़ूँ

दीप से अब भी
जल जाते हैं दीप
खंगालने होते हैं
चंद मोतियों को चुनने से पहले
पहाड़ भर सीप

सीखने को वसुन्धरा है
निभाने को परम्परा है
एक और प्रकाशोत्सव

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