Monday, October 31, 2011

जीवन में रंग

इतना रक्त बहा
मिट्टी का रंग लाल है

हमारे घर / सफेदी का लिबास ओढ़े
छिपाते हैं रंग
होते रहते हैं बदरंग
फेंकती रहती है पानी के छींटे
खेलती मानव से प्रकृति

वैसे तो सारे रंग मिलते हैं
खोज लिया आखिर शिशु ने
माँ की छाती में कहीं न कहीं
मिट्टी सफेद
और जाना / लाल रंग
होता है / अंदर ही अच्छा
हरा / भर जाता है हर घाव
आसमान नीला / नीली झीलें
पीला बसंत
मटमैली कर देती है वर्षा
और हवा भी रंग जाती है
कभी कभी

काले बादल
जब छुपाते चाँद
एक प्यार की अंगुली
बादलों को समझाती-सुलझाती
दिखलाती है जरा सी झलक
नीलम नयन की
लाल लाल रंगों के बीच
खिल उठते मोती सफेद
इसी क्षण ने
दोहराया होगा आदमी को
बिखरा लो / फैला दो इस रंग को
अपने नीड़ के अन्दर बाहर

सही रंगों का सही ज़गह होना
ज़रूरत है जीवन की
सही रंगों को सही ज़गह रखना
इबादत है जीवन की

हर कालजयी संस्कृति और सभ्यता के
नीचे बहती है एक काली नदी
खून की
एक न एक दिन
होयेगी सारी मिट्टी सफेद
जब भविष्य धो सकेगा
बहा सारा लहू इतिहास का

तब कोई नहीं छिपायेगा मुँह
न ही लटकायेगा मुखौटे
अन्दर-बाहर / घर-दुकान
रंगने के काम से भी
मुक्त हो जायेगा आदमी

तब भी क्या नहीं लगेंगे रंग ज़रूरी
न ही होगी चाह मन में
सिहरन का स्वाद दोहराने की
क्या अप्रासंगिक हो जायेगा प्यार
क्या अनावश्यक हो जायेगा अपनापन
रंगों का बाँध बना
क्या रंगों को बाँध लेगा आदमी
क्या रंगों को बाँट लेगा आदमी?

नहीं! इतनी सामर्थ्‍य मत देना कभी
माँ की छाती पर घूमता शिशु
रहे खेलता / हँसता / रोता
जागता / सोता / सपनों में विचरता
यही तो है जीवन की आत्मा
जीवन का अमरत्व
और निरन्तर अमृत-मंथन

सभ्यता के कलेवर
बदले हैं / सदियों में समय ने
आत्मा तक को पहुँची है ठेस
रंग मरहम हैं
जीवन है तब तक
जब तक हैं
जीवन में रंग

अशोक सिंघई 
समुद्र चॉंद और मैं कविता संग्रह से ...

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