Thursday, November 3, 2011

भाषा मनुष्य का महानतम अविष्कार

भाषा को साधना
उतना ही कठिन है
जितना पोटली में
प्रकाश को बाँधना

भाषा के तिलिस्म में
क़ैद हो गई है कविता
या कविता खुद ही तिलिस्म है
भाषा की

भाषा मिट्टी है जिसे रौंदकर
गढ़ता है कवि कुछ नया-नया
रचता नहीं कवि
मूल है मिट्टी
किसी ने नहीं बनाई आज तक
घनानन्द ने कहा है
कविता ने रचा है उसे

कविता रचने के अहम् से
कविता द्वारा रचे जाने के
विनय तक की यात्रा है
कवित्व की पहली सीढ़ी
और कविता का आधार
होती है भाषा

मिट्टी से जुड़ना
आकाश तक पहुँचने का मार्ग है
मिट्टी के ही जाये हैं
फूल और पर्वत
चक्कर लगाती है हवा
हो जाते हैं आकाश जो
वे नहीं मिल पाते मिट्टी से कभी
और आँसू बहाते हैं

ईश्वर को ईश्वर बनने के लिए
मिट्टी बनना पड़ा
मिट्टी से मिलना पड़ा
भाषा ने ही रखा है जिन्दा
ईश्वर तक को / मानव को
और तुमको भी सदी

जंगल में पेड़
चाहे हो किसी भी जाति / गुण-धर्म का
झाड़ी हो / या हो फूलों की बेल
बालियाँ हों धान की
या जीवन सी दूब
सबकी जड़ें मिट्टी में होती हैं

अलग-अलग रंगों में
अलग-अलग तासीर में
होती है संस्कृति / धर्म और भाषा
समय का गोल चक्कर है
बीस सदियों में / बीसों बार समझ कर
बरबस बिसरा दी जाती है यह बात
कि कभी विजय नहीं पाई
खून ने पसीने पर / रोशनी ने अँधेरे पर

इस सदी में उजाला
बनिस्बत कुछ ज्यादा बढ़ा
रोशनी होती है पारदर्शी
सब कुछ उघाड़ती/मूँदती/अंर्तनेत्रों को
खतरनाक अँधेरा नहीं
उज़ाला होता है
जब जाग जाता है
ईश्वर तक को बनाने वाला

पानी थमा तो / सड़ा पानी
पथ हुए पग-विहीन तो / खो गए
मिट जाती है वह संस्कृति / सभ्यता और भाषा
जो बदलती नहीं
सीखती नहीं तुमसे समय
सदा चलते रहना

बने रहने के लिए
अनिवार्य है गत्यात्मकता
तुम्हारे ही समय में सदी
कहा है एक महान् चित्रकार ने
ठहर गया धर्म / खो गया ईश्वर
सो गया राज्य / खो गया इंसान
भाषा मिट्टी है / नदी है भाषा
जो रहती है बनती
जो रहती है बहती

ईश्वर के समक्ष
पहली उद्घोषणा है भाषा
मनुष्य के नियंता और रचयिता होने की
समूची स्रष्टि में
अपने श्रेष्ठ होने की

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