Thursday, November 3, 2011

साक्षात्कार

दुर्गम गिरि शिखर
करते रहे हैं आमंत्रित
मानव-पगों को / सदियों से

स्थिर यायावर / अविचलित हिमाद्रियों पर
हरी शाल लपेटे
ऊँघते जंगल
सुनते हैं लोरियाँ कलरवों से
शीतल मंद समीर के झोंकों से
सिहरते पर्वत
भेजते रहते हैं पातियाँ / नदियों से

अपने मन के पैरों की थिरकन से
विचलित मेरा तन
धरती पर ठहरा
निहारता नीला गगन
गगन छू लेने की चाह में
टटोलता धरती की उठानों को
शुरू हो जाती चिर-वाँछित यात्रा
शोर से शान्ति की
ताकि मिले अधीर मन को
प्रतीक्षित विश्रान्ति

कछारों से / पठारों से
ऊँचे-ऊँचे देवदारों से
ओक से / मन में थमे शोक से
पूछता / कहाँ हैं पहाड़ों के पड़ाव
वादियों में घुसपैठ कर चुकीं
ऊँची-नीची सर्पीली सड़कों से
जोड़ता रिश्ते / करता बातें
अपने इस्पाती सहकर्मियों के पसीनों से सिरज़ी
रेल की पाँतों पर उड़ता
ऊँचाइयों की ओर
छूटता जाता पीछे
प्रगति का भयावह शोर

इन्हीं पहाड़ों ने कभी किया था
आकर्षित आक्रान्ता डलहौजी को
मैं भी थमता इसी ‘डलहौजी’ पर
सरकती जाती चिलमन हिमगिरियों की
और मैं लगता सिहरने
तन से / मन से भी

निहारता अनिर्मिमेष प्रकृति का भव्य सौन्दर्य
महसूसता अंतः तक प्रकृति का औदार्य
निरन्तर / शाश्वत और अप्रतिहार्य
जीवन का यह अनुभव माना अनिवार्य

दिखते पहाड़ों पर बने
छोटे-बड़े मानवीय घोंसले
और बल खाती पगडंडियाँ
जागता कसकता अपराध-बोध
साफ दिखतीं / श्रृंग-शरीरों पर
हमारे द्वारा डाली खरोचें

कुछ घटता ही है विशेष
जब मिलते हैं पुरुष और पहाड़
‘हिमगिरि’ में मिलते सज्जन
बड़े गर्व से बतलाते
सुकवि सोहनलाल द्विवेदी संग
उनने कुछ दिन थे गुजारे
‘डलहौजी’ में अवस्थित ‘टैगोर पार्क’
है खुला इश्तहार
बड़े-बड़े कवियों ने
इन गिरियों को कभी किया था नमस्कार

टूटा-फूटा तन लेकर पहुँचा यह अक्षर-किसान
पूरब-दक्षिण के पहाड़ों से
हुई कभी थी पहचान
झारखण्ड के सम्मेद शिखर की
नापी-तौली थी आध्यात्मिक उठान
सोचा मणि-महेश के श्वेत-शिखर तक जा पहुँचू
माना जाता है जो भारतीय दर्शनों का आधार
जरा जाँचँू, परखूँ
कितना ऊँचा / कितना नीचा है
हिमाचली पहाड़ों का यह परिवार

हम मनुष्य ही पाते हैं कुछ सोच
हम ही सोचते हैं ऊँचाई और निचाई
अंतर के सारे समीकरण
गढ़े हैं हमने ही
गढ़ी हैं जातियाँ ऊँची-नीची
धरा के शिखर तक धमके
धरा के गर्भ में भी जा घुसे

प्रकृति ने दीं हमें शक्तियाँ अपार
सौंप दिया नियन्ता ने
अपना समूचा कारोबार
समय और प्रकृति के द्वन्द्व में
हम हुये थे तैनात रक्षक की तरह
हमने किया व्यवहार अब तक
भक्षक की तरह

पहाड़ों के सामने आते ही
खटकने लगता है अपना बौनापन
नदियों के पास जाते ही
बिखरने लगता है
मनुष्य होने का अपना अहम्
रावी का शीतल जल
और कलकल नाद
जतला देता / कितना फीका है
मानवीय संगीत का नाद और आह्लाद

सरल नहीं होतीं यात्रायें
नदियों की / पहाड़ों की
हमारे अंदर भी होता है वही संसार
जो होता है सामने आँखों के
दिखता है हमें साफ-साफ
हमारे अंतस् में भी
बहती हैं नदियाँ
हमारे अंतस् में घर बनाकर
जमे रहते हैं पहाड़
अंदर भी बहती हैं हवायें
झूमते हैं वृक्ष
खिलते रहते हैं फूल
सुन सको तो
अंदर भी गूँजता है कलकल नाद
फुदकती हैं गिलहरियाँ
नाचती हैं चिड़ियाँ
अंदर की यात्रा होती है और भी कठिन
पहले तो दुष्कर होता है
अंतस् में प्रवेश कर पाना

नदियाँ बहती हैं
नहीं जानतीं / देश/प्रान्त की सीमायें
नहीं मानतीं / वर्ण/वर्ग-भेद की बाधायें
सबके लिये खुला है उनका आँचल
सबके लिये जगह / जैसे गोद जननी की
पर्वत भी विचरने देते / अपने पर / सबको
सबके लिये जगह / जैसे छाती पिता की

कोई दरबारी राग नहीं
कोई समय की बात नहीं
श्रृंगार किया है रंग-बिरंगे फूलों से
अपूर्व गंध लिये / सर्वदा / सबके लिये
हवायें दिखतीं गीत गातीं

रावी के प्रबल वेग से
हो जातीं गोल-मटोल चट्टानें
मानों पर्वत और नदी के प्रणय-प्रसंग से
पैदा होतीं शिवfलंग सी संतानें
पहाड़ तराशे जाते
समय और नदी के प्रयास से
और उतरते नीचे / मानों पतन-गर्त में
शिखर चूर-चूर हो जाते
बालू में बदलते जाते

शायद इन्हीं से सीखा हमने
माँ के दूध को डिब्बों में सजाना
वहीं के वहीं हैं
पर्वत, पेड़ और नदियाँ
सदियों में बदला है
तो सिर्फ हमारा जमाना

इन्हीं बालूओं से हम बनाते
अपने अपनों की सपनों की दुनिया
संस्कृति और सभ्यताओं की अट्टालिकायें गगनचुम्बी
गगन चूमने का गर्व तिरोहित हो जाता
अपने रचने की प्रतिभा का दर्प पिघल जाता
देखकर पिघलते हिमगिरियों को
fनःस्वार्थ बहती नदियों को
निरख कर / समाधिस्थ वृक्षों को
सुन कर गाते पँछियों को
देख कर थिरकती गिलहरियों को

सारा जोड़-घटाना लगने लगता व्यर्थ
बिना पहाड़ के / नदियों के / पँछियों के बिना
क्या है धरती पर जीवन का
और किसी के भी जीने का कोई अर्थ

हुआ परिचय पहाड़ों से
परिचय से ही जनमता और फिर बढ़ता है प्यार
अपरिचय से बना रहता है अज्ञात भय
परिचित होने तक
जानने और मानने पर ही
प्रतिमा बन जाती है पूज्य
कितने-कितने रूपों में विराजित हैं
देवियाँ पहाड़ों पर
शक्तिस्वरूपायें ठहरी हैं
अपने-अपने ठिकानों पर

माँ तक जाना
इतना हुआ कठिन कब से
सम्भवतः तब से
बड़े, और बड़े होने लगते हैं
हम जब से

चम्बा की देवी से मैंने इतना ही माँगा
मुझे आस्था नहीं / ज्ञान दो
मुझे मुक्ति नहीं / संघर्ष की शक्ति दो
मुझे आशीष नहीं / अपने होने की स्वीकृति दो

यदि दे सकती हो
और चाहती हो सचमुच कुछ देना
मुझे दो पंचतत्वों की वही मूल शक्ति
जो पहाड़ों ने पाई है
जो नदियों में समाई है
जो ज्वालामुखियों में छिपाई है
जो हवाओं में बहाई है
दो वही मूल शक्ति
जो नभ की तरूणाई है

नहीं है कामना अमरता की
जानता हूँ कहानी त्रिशंकु की
मैं नहीं चाहता ठहरना वैसे ही
जैसे पहाड़ पर ज्यादह नहीं ठहरता प्रकाश
पसरता है अंधकार
सब कुछ काला करता हुआ
आगत लालिमा के लिये
उपयुक्त पृष्ठभूमि बनाता
कितना भयावह होता है अँधकार
दिखने लगता है सब कुछ साफ-साफ
प्रकाश की ही नहीं
अँधकार की भी होती है एक भूमिका
बिल्कुल ऐसा ही होता है जीवन का चक्र

समझ में आने लगता है
कितना जटिल है जीवन का जंजाल
जब फटी स्वेटर पहन कर
हिमगिरियों में मिल जाता है
देश का एक कोई नौनिहाल
बेचता मुझे तरह-तरह की शाॅल
नीचे की दुनिया नहीं सिखा पाती दुनियादारी
पहाड़ पर कब पनपा व्यापार
पहाड़ पर कब रुका अर्थ का रथ

अविचलित स्थिर पहाड़
जब भसकते हैं / भीतर की तड़फन से
सब कुछ हो जाता है पहाड़ ही पहाड़
कभी नहीं दहाड़ता पहाड़
पहले कभी नहीं करता है वार
हम उसे जानें या न जानें
वह हमें जानता है

सबसे ऊँचा और
ईश्वर के सबसे निकट होता है पहाड़
इसीलिये अपने कई रूपों में
जमा है ईश्वर वहाँ
जिसको भी जाना होता है
किसी अनाम/अज्ञात सत्ता के पास
उसे अंततः चढ़ना ही पड़ता है पहाड़

No comments:

Post a Comment

हमारा यह प्रयास यदि सार्थक है तो हमें टिप्‍पणियों के द्वारा अवश्‍य अवगत करावें, किसी भी प्रकार के सुधार संबंधी सुझाव व आलोचनाओं का हम स्‍वागत करते हैं .....

Categories

कविता संग्रह (32) अशोक सिंघई (31) समुद्र चॉंद और मैं (30) कहानी संग्रह (13) आदिम लोक जीवन (8) लोक कला व थियेटर (8) Habib Tanvir (7) उपन्‍यास (6) छत्‍तीसगढ़ (6) गजानन माधव मुक्तिबोध (5) नेमीचंद्र जैन (5) पदुमलाल पुन्‍नालाल बख्‍शी (5) रमेश चंद्र महरोत्रा (5) रमेश चंद्र मेहरोत्रा (5) व्‍यंग्‍य (5) RAI BAHADUR HlRA LAL (4) RUSSELL (4) TRIBES AND CASTES (4) वेरियर एल्विन (4) सरला शर्मा (4) गिरीश पंकज (3) जया जादवानी (3) विनोद कुमार शुक्‍ल (3) अजीत जोगी (2) अवधि (2) अवधी (2) गुलशेर अहमद 'शानी' (2) छंद शास्‍त्र (2) जगन्‍नाथ प्रसाद भानु (2) जमुना प्रसाद कसार (2) जय प्रकाश मानस (2) डॉ. परदेशीराम वर्मा (2) डॉ.परदेशीराम वर्मा (2) परितोष चक्रवर्ती (2) माधवराव सप्रे (2) मेहरून्निशा परवेज़ (2) लोकोक्ति (2) संस्‍मरण (2) Pt.Ramgopal Tiwari (1) Sahakarita Purush (1) W. V. Grigson (1) अनिल किशोर सिन्‍हा (1) अपर्णा आनंद (1) आशारानी व्‍होरा (1) इतिहास (1) कुबेर (1) कैलाश बनवासी (1) चंद्रकांत देवताले (1) चन्द्रबली मिश्रा (1) चम्पेश्वर गोस्वामी (1) छेदीलाल बैरिस्टर (1) डॉ. भगवतीशरण मिश्र (1) डॉ.हिमाशु द्विेदी (1) तीजन बाई (1) दलित विमर्श (1) देवीप्रसाद वर्मा (1) नन्दिता शर्मा (1) नन्‍दकिशोर तिवारी (1) नलिनी श्रीवास्‍तव (1) नारी (1) पं. लखनलाल मिश्र (1) पंडवानी (1) मदन मोहन उपाध्‍याय (1) महावीर अग्रवाल (1) महाश्‍वेता देवी (1) रमेश गजानन मुक्तिबोध (1) रमेश नैयर (1) राकेश कुमार तिवारी (1) राजनारायण मिश्र (1) राम पटवा (1) ललित सुरजन (1) विनोद वर्मा (1) विश्‍व (1) विष्णु प्रभाकर (1) शकुन्‍तला वर्मा (1) श्रीमती अनसूया अग्रवाल (1) श्‍याम सुन्‍दर दुबे (1) संजीव खुदशाह (1) संतोष कुमार शुक्‍ल (1) सतीश जायसवाल (1) सुरेश ऋतुपर्ण (1) हर्ष मन्‍दर (1)

मोर संग चलव रे ....

छत्तीसगढ़ की कला, संस्कृति व साहित्य को बूझने के लिए निरंतर प्रयासरत. ..

छत्तीसगढ़ की कला, संस्कृति व साहित्य को बूझने के लिए निरंतर प्रयासरत. ..
संजीव तिवारी