Saturday, October 22, 2011

समुद्र, चाँद और मैं


मौन के बिना
शब्द खो देते हैं
अपने अर्थ
कोई न सुने
तो कहना
हो जाता है
कितना व्यर्थ

मौन रहता है चाँद
बिना शोर किये
हमारी दुनिया में
उतरती है चाँदनी

समुद्र रहता है गरजता
उफनता
लहरों से भेजता रहता है
लगातार संदेश

सागर की तड़फ
बिफरना देख
सागर का
टीस उठती जैसे
टकरा रहा हो
सिर मेरा
किर्च-किर्च
किनारों से

मैं सोचता
कभी हो जाता हूँ
मैं समुद्र
कभी चाँद मैं

टटोलता हूँ मैं
कितना
बचा रह पाता
मुझमें मैं

समुद्र के पास
होता है जाना
किसी का नहीं होता समुद्र
चाँद होता है बहुत दूर
पर होता है सबका

नहीं होता हर समय
चाँद हर किसी का
पहूँच सको पास तो
बना रहता है साथ
हर समय
समुद्र का, चाँद का
और मुझसे मेरा

समुद्र की असीमितता
अक्सर हार जाती है
मेरी प्यास से
चाँद की शीतलता
कहाँ पार पा पाती है
मेरी आग से

चाँदनी से लपकती हैं
मेरी ओर अग्नि-शिखायें
जब होता हूँ मैं
पास से पास
चाँदनी से धुले समुद्र के
और दूर से दूर
तुम्हारी आँच के

जुहू पर
कब्ज़ा है बाज़ार का
न समुद्र बचा
न समुद्र पर
तैर कर आती
नम हवा
बिजली की
चौंधियाती रौशनी ने
निगल लिया अस्तित्व
चाँद का
समूचा का समूचा
दुःख से काला पड़ गया
चेहरा समुद्र का
शरद पूनम की रात को

सम्हाल कर रखे
सपनों की अँगुलियाँ पकड़े
समुद्र की साक्षी में
चाँदनी को निहारने
मेरी खुली आँखों को
दिखता, घनघोर अँधेरा

दुखते दिल के घावों पर
नमक मल जाती आवाज़
भारी पड़ती
समुद्र की आवाज तक पर
आवाज़
मालिशवालों की
भेल पूरी /पाव-भाजी
बेचने वालों की

भरे पेटों को
कहाँ सुनाई पड़ती हैं
खाली पेटों की
गर्जनायें

समुद्र की ही ओर होती है
पीठ उनकी
चाँदनी और बिजली की
मिली-जुली चमक
और भी ज्यादा
पारदर्शी कर देती है
पेट की भूख को
जो निगल ली जाती है
जिस्मानी-रूहानी भूखों द्वारा
ठाठ से, आन-बान-शान से

बाज़ार में,
सब कुछ मिलता है
इन्सान का जिस्म पलता है
बाजार में बिक कर
चाँद को निहारने वाली निगाहें
चोरी छिपे और बिन्दास भी
उतरने लगती हैं
जिस्म की घाटियों में

अपनी नदी
अपने गाँव की चाँदनी
हमजोलियों के ठहाके
कविताई,
और कभी गुनगुनाये
गीतों की स्मृतियों की
तह उघाड़ते
मैं समुद्र और चाँद छोड़कर
भारी कदमों से
लौट आता हूँ
अपनी किराये की
अस्थायी कब्र में
दुबकने के लिये

सब कुछ जहाँ
सुनिश्चित होता है
अनुभूति होती है मुझे
जैसे बदल गया मैं
जीवाश्म में
कट गया प्रकृति से
परिवर्तित होते रहने की
प्रवृत्ति से

जहाँ भारी पर्दे
मुझको काट कर
अलग कर देते हैं
अस्थिर चाँद से
स्पन्दित समुद्र से
और अविश्लेष्य
स्वयं मुझसे

मैं एकाकार
होना चाहता था
समुद्र की साक्षी में
चाँदनी से
सब,
अलग-थलग पड़ गये
वह भी
शरद-पूनम की रात
चाँद, समुद्र और मैं भी

3 comments:

  1. बेहद सुन्दर और गहन विश्लेषण किया है।

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  2. बहुत अच्छा लगा इसे पढ़ना....रिकार्ड करना है अनुमति मिलेगी ?

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  3. अर्चना जी इस बहुत सुन्‍दर पहल के लिये धन्‍यवाद, कवि श्री सिघई जी नें इसके लिये अनुमति दे दी है। आप इसे या श्री अशोक सिंघई की किसी भी कविता को अपनी आवाज में रिकार्ड कर सकती है, पाडकास्‍ट होने के बाद लिंक दे देवें ताकि हम उसे उस कविता के साथ ही लगा सकें.

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