हमारे हर सुखों की आँख में
हमेशा के लिये
मेहमान कर दिये अक्षर आँसू
हमारे हर दुःखों की घड़ियों में
हटा दिया कंधे पर से
एक सहारा
समझाया जाता है
बहुत कुछ घट जाता है
असाता कर्मों के उदय से
जिनके अस्त होने की
नहीं होती कोई घटनात्मक सूचना
बस उदय होते हैं
ऋण के लेखे-जोखे
जनम तो होते हैं सबके
अलग-अलग
किस हिसाब से मौत हो जाती है
बहुतों की एकसाथ
गड़बड़ है सारा लेखा-जोखा
साफ नहीं है कर्मों का हिसाब
सिर्फ ऋण ही दिखते हैं
आत्मा की चमड़ी तक
उतार लेने वाले
ओ, बेईमान सूदखोर
कहते हैं तुझको पाना
नितांत व्यक्तिगत है
जिसे बाँट न सकें हम
वह पाना भी क्या पाना है
मानवता बाँटने पर टिकी है
और तू! अलगाने पर टिका है
अगर एक है तू
और सब कुछ तेरा ही किया-धरा है
भूख-प्यास, मरण-जनम,
दुःख-सुख, माया-काया
तो बड़ा क्रूर खिलाड़ी है तू
हमारे आँसूओं के सागर पर
मुस्कानों की अपनी नाम-नाव चलाने वाले
तुझको भी कुछ जानना शेष है
बू आने लगती है आदमी को
किसी भी पुरानी होती व्यवस्था से
तेरी व्यवस्था सड़ गई है
रंग उतरने लगे हैं तेरे षड़यंत्रों के
कलई उतर गई है तेरे ईश्वरत्व की
विद्रोही होता है पहले कवि
लगाता रहता है नश्तर
व्यवस्था के संभावी नासूरों पर
तेरी मायावी दुनिया को ठोकरों पर रखता है कवि
तेरे जालों पर रखे दानों पर थूकता है कवि
तेरे वरदानों की बारिश को नकारता है कवि
गलती तो सबसे होती है
तूने ही बनाया पपीहा
और तूने ही नक्षत्र स्वाति
आशा और इंतजार
यहीं चूक गया तू
मैं भी जानता हूँ भवितव्य
वह घड़ी जरूर आयेगी
तू भी मरेगा एक दिन
आशंकित हूँ मैं
अच्छा हो तू बना ही रहे
पुनर्जन्म में और भी बिगड़ेगी बात
तेरे कर्म कुछ खास अच्छे नहीं रहे
साहित्य का वंशज है अध्यात्म
समझो साहित्य का पुनर्जन्म ही
तेरे सोने की लंकाओं में
कैद होकर रह गई हैं
अध्यात्म की सीतात्मायें
हमारे हर युद्ध तूने ही लड़े
ऐसा बना रखा है तूने
धर्म के इतिहास को
अगर तू एक है
कब तक, और कितने बनाते रहेगा राम
बासन्देश तूने खुद कहा है
रावण भी तेरा ही खेल है
अजीब गोरखधंधा है
हमारे ही वेश में आकर
हमारे रुधिर से बनाता अपना पुष्पक विमान
अपनी जनता, अपना सिंहासन
और अग्नि-परीक्षित सीता
निरन्तर निर्वासन ही निर्वासन
तारतम्य टूटने से ही जनमती है
एक नई दुनिया
कवि होता है अराजक
खड़ा करता है हर व्यवस्था को
कटघरे में
बढ़ रही हैं तेरी मनमानियाँ
मैं अक्षर-किसान
नहीं डरता किसी से
अपने-आप से भी
तुझसे तो कभी नहीं डरा मैं
अन्याय के खिलाफ़
लड़ सकता हूँ किसी से भी
मैं हारता हूँ या जीतता हूँ
पर बना हूँ
मैदान-ए-ज़ंग में
और तू है
समय से पहले समय का लापता
अश्वत्थामा सा कायर
छुपकर पीठ पर वार करने आदतन आदी
समस्त विशेषणों का भक्षक
मेरी ही अजर-अमर भस्मासूरी रचना
अगर वस्तुतः नियामक बन बैठा है तो
प्रथम-दृष्टया दोषी है तू
इस बार वायदा-माफ गवाह
नहीं बन पावेगा तू
मैं तेरे नाम जारी करता हूँ सम्मन
पेश हो! अदीबों के रूबरु
अक्षर की अदालत में
बाअदब, बामुलाहज़ा हाज़िर हो!
अशोक सिंघई
समुद्र चॉंद और मैं कविता संग्रह से ...
हमेशा के लिये
मेहमान कर दिये अक्षर आँसू
हमारे हर दुःखों की घड़ियों में
हटा दिया कंधे पर से
एक सहारा
समझाया जाता है
बहुत कुछ घट जाता है
असाता कर्मों के उदय से
जिनके अस्त होने की
नहीं होती कोई घटनात्मक सूचना
बस उदय होते हैं
ऋण के लेखे-जोखे
जनम तो होते हैं सबके
अलग-अलग
किस हिसाब से मौत हो जाती है
बहुतों की एकसाथ
गड़बड़ है सारा लेखा-जोखा
साफ नहीं है कर्मों का हिसाब
सिर्फ ऋण ही दिखते हैं
आत्मा की चमड़ी तक
उतार लेने वाले
ओ, बेईमान सूदखोर
कहते हैं तुझको पाना
नितांत व्यक्तिगत है
जिसे बाँट न सकें हम
वह पाना भी क्या पाना है
मानवता बाँटने पर टिकी है
और तू! अलगाने पर टिका है
अगर एक है तू
और सब कुछ तेरा ही किया-धरा है
भूख-प्यास, मरण-जनम,
दुःख-सुख, माया-काया
तो बड़ा क्रूर खिलाड़ी है तू
हमारे आँसूओं के सागर पर
मुस्कानों की अपनी नाम-नाव चलाने वाले
तुझको भी कुछ जानना शेष है
बू आने लगती है आदमी को
किसी भी पुरानी होती व्यवस्था से
तेरी व्यवस्था सड़ गई है
रंग उतरने लगे हैं तेरे षड़यंत्रों के
कलई उतर गई है तेरे ईश्वरत्व की
विद्रोही होता है पहले कवि
लगाता रहता है नश्तर
व्यवस्था के संभावी नासूरों पर
तेरी मायावी दुनिया को ठोकरों पर रखता है कवि
तेरे जालों पर रखे दानों पर थूकता है कवि
तेरे वरदानों की बारिश को नकारता है कवि
गलती तो सबसे होती है
तूने ही बनाया पपीहा
और तूने ही नक्षत्र स्वाति
आशा और इंतजार
यहीं चूक गया तू
मैं भी जानता हूँ भवितव्य
वह घड़ी जरूर आयेगी
तू भी मरेगा एक दिन
आशंकित हूँ मैं
अच्छा हो तू बना ही रहे
पुनर्जन्म में और भी बिगड़ेगी बात
तेरे कर्म कुछ खास अच्छे नहीं रहे
साहित्य का वंशज है अध्यात्म
समझो साहित्य का पुनर्जन्म ही
तेरे सोने की लंकाओं में
कैद होकर रह गई हैं
अध्यात्म की सीतात्मायें
हमारे हर युद्ध तूने ही लड़े
ऐसा बना रखा है तूने
धर्म के इतिहास को
अगर तू एक है
कब तक, और कितने बनाते रहेगा राम
बासन्देश तूने खुद कहा है
रावण भी तेरा ही खेल है
अजीब गोरखधंधा है
हमारे ही वेश में आकर
हमारे रुधिर से बनाता अपना पुष्पक विमान
अपनी जनता, अपना सिंहासन
और अग्नि-परीक्षित सीता
निरन्तर निर्वासन ही निर्वासन
तारतम्य टूटने से ही जनमती है
एक नई दुनिया
कवि होता है अराजक
खड़ा करता है हर व्यवस्था को
कटघरे में
बढ़ रही हैं तेरी मनमानियाँ
मैं अक्षर-किसान
नहीं डरता किसी से
अपने-आप से भी
तुझसे तो कभी नहीं डरा मैं
अन्याय के खिलाफ़
लड़ सकता हूँ किसी से भी
मैं हारता हूँ या जीतता हूँ
पर बना हूँ
मैदान-ए-ज़ंग में
और तू है
समय से पहले समय का लापता
अश्वत्थामा सा कायर
छुपकर पीठ पर वार करने आदतन आदी
समस्त विशेषणों का भक्षक
मेरी ही अजर-अमर भस्मासूरी रचना
अगर वस्तुतः नियामक बन बैठा है तो
प्रथम-दृष्टया दोषी है तू
इस बार वायदा-माफ गवाह
नहीं बन पावेगा तू
मैं तेरे नाम जारी करता हूँ सम्मन
पेश हो! अदीबों के रूबरु
अक्षर की अदालत में
बाअदब, बामुलाहज़ा हाज़िर हो!
अशोक सिंघई
समुद्र चॉंद और मैं कविता संग्रह से ...
No comments:
Post a Comment
हमारा यह प्रयास यदि सार्थक है तो हमें टिप्पणियों के द्वारा अवश्य अवगत करावें, किसी भी प्रकार के सुधार संबंधी सुझाव व आलोचनाओं का हम स्वागत करते हैं .....