Monday, October 24, 2011

झपकियाँ लेने लगा सूरज

सब कुछ ठंडा होता जा रहा है
और मौसम सर्दतर
ठंडा होता जा रहा है अहसास

काटने लगा है समय
मोह बढ़ता जा रहा है
सुबह से / शाम से
समय-पात्र की रेत
अल्पसंख्यक हो रही है

अभियुक्त नजर आने लगा है
गवाह के कटघरे में
खतरों की छत्रछाया है
कुछ भी नहीं साफ-सुथरा
माया की माया है

जब साँस लेने के लिये
पेंचीदा होती हवा सी हवा हो
तब आती / गर्म रखती
विश्वास की गंध सौंधी
स्मृतियों की गहन गुफा में
टहलती / बूढ़ी दादी सी
जिसकी रोक-टोक से
तब हिलते थे मेरे पर

जिजिविषा को जिन्दा रखने
जिन्दा रखने ज़मीर को
अब भी टिका हूँ बाज़ार में
सम्हालते-थामते
मूल्यों के अवमूल्यन की दर

चलनी में छनने का समय
पास दिखता है
बिखरेंगे / तब न उगेंगे बीज
समय लगता है
बर्फ को पिघलने में
दुनिया को बदलने में

1 comment:

  1. चलनी में छनने का समय
    पास दिखता है
    बिखरेंगे / तब न उगेंगे बीज
    समय लगता है
    बर्फ को पिघलने में...

    सुन्दर प्रस्तुति.... वाह!!
    आपको दीप पर्व की सपरिवार सादर बधाईयां....

    ReplyDelete

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संजीव तिवारी