Friday, October 21, 2011

अनिर्णीत अनजाना खेल

रात के गर्भ से जनमता रहता है
अनवरत सूरज
मिटाने अँधेरा
अँधेरा मिटता कहाँ है
दूर नहीं होता
छिप जाता है सिर्फ

चाह बस इतनी
थोड़ी सी नमी / ठंडक थोड़ी सी
और थोड़ी सी गर्मी
जनम जाये / जीवन जरा सा

सब कुछ ठीक-ठाक नहीं घटता
हर बार / कई बार

मायावी हों मंजिलें
रफू़चक्कर हों रास्ते
हौसला मुट्ठियों में सिमटी रेत हो
चक्कर खत्म नहीं होते सूरज के
छिपाछुली के खेल में

नहीं पकड़ा गया अँधेरा
आज तक
सूरज तक के मुखौटे हैं
पास इसके
दीपक के नीचे ही
बैठा रहता है
आस्तीन में साँप की तरह

संस्कृतियों / सभ्यताओं की
कई-कई धुनों की बीन
बज रही है अनवरत
कब होगा पूरा
खेलता कौन है
बच्चों से / बचकाने खेल

पहरे सितारों के
हवाओं की गश्त
जीवन और मृत्यु
मध्यावकाश हैं
दौड़-दौड़ के सूरज की
फूल चुकी साँस है

हारता हाहाकार
देहरी तक आने में
आँसू लाचार
जम गई मुस्कान है
अपनी जीत-हार से
छिपे खिलाड़ी
कुछ ज्यादा परेशान हैं

अशोक सिंघई 
समुद्र चॉंद और मैं कविता संग्रह से ...

1 comment:

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