वनमाला
(कविता-संग्रह)
सर्वाधिकार सुरक्षित: डाॅ. नवीन शर्मा
मूल्य: 50 रू.
प्रथम संस्करण: 24 दिसंबर 2005
आवरण : रविशंकर शर्मा
प्रकाशक
वैभव प्रकाशन
सागर प्रिंटर्स के पास, अमीनपारा चौक,
पुरानी बस्ती, रायपुर (छत्तीसगढ़)
दूरभाश: (0771) 2262338 मो. 09425358748
मूल्य: 50 रू.
प्रथम संस्करण: 24 दिसंबर 2005
आवरण : रविशंकर शर्मा
प्रकाशक
वैभव प्रकाशन
सागर प्रिंटर्स के पास, अमीनपारा चौक,
पुरानी बस्ती, रायपुर (छत्तीसगढ़)
दूरभाश: (0771) 2262338 मो. 09425358748
समर्पण
पिता, गुरू एवं प्रेरक
स्व. शेशनाथ शर्मा ‘शील’
के पावन चरणों में
समर्पित है ‘वनमाला’
सरला शर्मा
17 दिसंबर,2005
विश्वास की वर्णतूलिका
कविता मन की ऐसी गूढ़ अभिव्यक्ति है, जिसे कवि स्वयं नहीं जानता, किन्तु व्यक्त होने पर वह स्वयं विस्मित हो जाता है, एक आकार-एक fबंब प्रस्तुत होता है। मन सबके मध्य रहकर भी जाने क्यों कब एकाकी हो जाता है- उसी एकांत क्षण में जाने कौन से शब्दों से गीत की रचना होती है। वास्तव में मन अनुभूतियों के गहन सागर में से शब्दांे के मोती चुनकर लाता है- जिस सागर में प्रेम, घृणा, क्रोध सदृश कितने भाव, अनुभव परिवर्तन की प्रतीक्षा में रहते हैं, प्रणय और प्रलय के बीच काव्य-प्रणयन उसी प्रीति की प्रेरणा है, प्रणोदन है, जिससे संपूर्ण जीवन में परिवर्तन आता है, गीत बनते हैं, किन्तु उन्हें कौन खरीद कर सार्थक करेगा? ये गीत अमूल्य हैं, शायद इनका गायन ही इन्हें सार्थक करेगा- कौन जाने? नीलगगन के चिर नवीन सुमन खिलते हैं और धरा का धानी आंचल पुराकरता है- प्रिय शरदातप से आ जाते एक बार।
कवियत्री ने महाप्राण निराला को प्रणमांजलि देकर सुंदर भाव व्यक्त किया है और उनकी रचनों का हार पिरोया है-
‘‘हे अवधूत ! तपस्वी साधक तुमको मेरा नमन।’’
सरला शर्मा ने नये-नये-वर्श की शुभाशंसा को शब्दों में गूँथकर मांगल्य-माला बना दी है। जब मंदिर मसृण मधुमास आता है तो प्रिय बहुत याद आते हैं, सूने निलय में सुधि का सरगम गूँज उठता है-
‘‘मेरे सूने मन में सरगम तो ध्वनित हुआ
छंद! किन्तु तुम मिले नहीं-
प्राण! किन्तु तुम मिले नहीं।’’
वर्तमान के संतोश में अतीत की स्मृति सन्निहित रहती है। उस कोश में जाने कितने मान-मनुहार-ईसत्-सिसकी-विनोद, प्रमोद-परिहास सुशप्त रहते हैं- इसी स्मृति में भूतपूर्व प्रधानमंत्री की हत्या भी है। इस देश में अभिशप्त गांधारी है तो कराहती कुंती भी है, क्रंदन पांचाली भी तो मृतवत्सा उत्तरा भी...... फिर भी आशा है भाई की कलाई राखी से सुज्जित होगी और सब सुखी होंगे तभी तो कवयित्री की अभिलाशा है-
‘‘राम के आंगन ईद मिले
रहमान के घर खेलें होली
गिरिजाघर में लंगर खोलें
गुरूद्वारे में दीवाली.....।’’
भारत भूमि कभी अरण्यवासिनी थी, फिर ग्रामवासिनी तो अब नगर निवासिनी हो रही है- हरितभूमि प्रकृति पुत्री प्रदूशण से परितप्त और पादप विहीना हो रही है। अतः आशा है कि पर्यावरण को परिशुद्ध करें-
‘‘घायल प्रकृति करे पुकार-पौध लगाओ मुझे बचाओ.....।’’
आंगन की तुलसी, सीवान में अमराई, तालाब के पीपल-नीम जीवन को हरा-भरा बनाते हैं। बापू को कवयित्री पुकारती है, किसी शायर ने भी कहा है-
‘‘गाँधी का देश, तौबा करेगा शराब से,
मैं मुतमईन नहीं हूँ तुम्हारे जवाब से।’’
संग्रह में संकलित शक्ति की उपासना सराहनीय है।
‘‘श्याम कभी पूरा होगा बिन राधा
बिन नारी नर का जीवन है आधा
विधि का विधान है ये सादा सीधा।’’
स्नान से तन पवित्र होता हैं तो दान से मन पवित्र इसीलिए कवत्रियी ऐसे दीपक की तलाश में है जो काजल नहीं उगलता।
जीवन का सत्य ही कविता का सत्य है- वैसे सत्य न नूतन तो सनातन है-
‘‘किससे कहूँ- अपनी-कौन यहाँ अपना है?
यहाँ तो हर आँख में कल का सपना है।’’
और भी कहती है-
‘‘नहीं लिखनी मुझे राजा रानी की कहानी,
लिखती रहे ये कलम पीड़ितों की कहानी।’’
समय सीमित है आकांक्षा असीम...... अतः अभीप्सा आधी-अधूरी ही रह जाती है। इससे तो अच्छा है कि सुख के बदले दुख का ही संग साथ हो - उस अगोचर का, अरूप का-साकार सुखद स्पर्श हो सुखानुभूति हो.......।
अंतिम पलों में अधरों में मुस्कान हो........ उस अप्राप्य के अपांग दान से अतः करण आप्यायित हो।
सत्य जब शिव और सुंदर हो जाता है तब वह बन जाता है। उसी सत्य, शिव-सुंदर की आराधना हेतु कवयित्री सरला शर्मा के प्रति शुभाशंसा व्यक्त करता हूँ।
इत्यलम विद्यानगर, अग्रहायण शुक्ल प्रतिपदा
डाॅ.पालेश्वर शर्मा
अध्यक्ष
छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद
बिलासपुर
दूरभाष: 223024
शुभकामना
सुख-दुःख, आशा-निराशा, जय-पराजय, ईश्याZ-अहंकार, पश्चाताप-प्रायश्चित और मान-मनुहार की गलियों से गुजरती हुई भावनाएँ जब लोकमंगल के प्रांगण तक पहुँचती हैं, तभी उन्हें सत्-साहित्य की संज्ञा दी जाती है। व्यश्टि का समश्टि में विलय ही जीवन का श्रेय और प्रेय हैं, कवयित्री सरला शर्मा की ‘वनमाला’ इसी श्रृंखला की एक कड़ी है-
‘‘श्रद्धा और विश्वास बाती है,
भक्ति स्नेह रूप तेल है।
प्रकाश देना मेरी नियति है,
अँधेरे से जूझना मेरा धर्म है।’’
‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’ भारतीय संस्कृति का भास्वर स्वर है।
वन-पहाड़, नदी-झरना, खेत-खलिहाल में विचरण करता मन अनंत की प्रतीक्षा करता है। असीम जिज्ञासा थमी नहीं हैं कि देने-पाने की क्रीड़ा को सार्थकता कौन देता है?
ृ कवयित्री युग चेतना से असम्पृक्त नहीं है। दिशाहीन बेरोजगारों की व्यथा, कन्या भ्रणू हत्या की पीड़ा, भाव, भाशा, धर्म की विभिन्नता लिए जनपथ में बैठी गांधारियाँ सोचने पर विवश करती हैं।
तपती धरती, झुलसते वृक्षों की पुकार चेतना को झकझोर देती है-
‘‘काटो मत हमको ऐ साथी
हम तेरे पूर्वज की थाती।
जंगल में मंगल करना है
घर-घर भेजो तुम यह पाती।’’
मुँदती पलकों पर किसी की छुअन, लबों पर किसी का तराना मृत्यु की सच्चाई को उजागर तो करता है fकंतु पुनर्जन्म पर असीम आस्था भी व्यक्त करता है-
‘‘जीवन की पोथी पर साथी
अनिवार्य मृत्यु का हस्ताक्षर है।
पंचतत्व में मिल जाना ही,
पुनर्जन्म का fसंह द्वार है।’’
लोकमंगलकारी साहित्य-रचना का आशीर्वाद एवं कालजयी कृति की प्रेरणा के साथ हार्दिक शुभकानाएँ देता हूँ।
बासुदेव प्रसाद पटेल
उत्पन्ना एकादशी, संचालक
विलंब विक्रम-संवत2062 आदिशक्ति सदन किरारी, चंद्रपुर
अनक्रमणिका
1. कौन ?
2. संकेत
3. नमन
4. शुभ-कामना
5. प्रत्यावर्तन
6. सुधि
7. वर्तमान
8. यादें
9. शेश प्रश्न
10. अभिलाशा
11. मुक्तक
12. वनराजि संरक्षण
13. प्रकृति की पुकार
14. पाती
15. एक बार फिर आओ
16. पाथेय
17. शक्ति-स्तवन
18. दान
19. दीपक
20. अवकाश-प्राप्त
21. रे वक्त! जरा थमना
22. विवशता
23. उपहार
24. देश-वंदन
25. परछाई
26. नेह-बंधन
27. दूरी
28. नव-इतिहास
29. आओ दुख
30. प्रेम
31. विश्राम
32. जागने से डर
33. खूनी साल अलविदा
कौन ?
जन संकुल जग के मेले में
मेरे गीतों को लेगा मोल,
कौन ? न जाने कोई
चिर हास अश्रु से पूरित
है मानव का मन
हास झरे पथ में, कब कैसे ?
अश्रु बन गए मोती
इन्हें सेमेटे कौन-न जाने कोई
पाकर प्रेम कृतार्थ हुई तो
देकर हुई कभी कृतकृत्य
सार्थकता देता है कौन
न जाने कोई ।
जिज्ञासाओं के अरण्य में
चलते-चलते सांझ हो गई
पथहारे दिग्भ्रमित पगों को
मंजिल तक पहुँचाये कौन ?
न जाने कोई।
मेरे गीतों को लेगा मोल कौन
न जाने कोई।
संकेत
शरद का नील निरभ्र आकाश
शीतल सुखद पवन का झोंका
झर-झर झरते सुरक्षित हरfसंगार
आदिगंत क्षितिज तक फैला शरदातप
उड़ने लगे वक पातों के उज्ज्वल हार
धरती ने ओढ़ी हरी धानी चूनर।
जाग उठे रास्ते मुखरित हैं खेत खलिहान
झूमता, लहकता, इतराता है (पीत) धान
मेहनत का फल, झूमती फसल, प्रमुदित किसान
नव वधुयें हैं राह देखती तज मिथ्याभिमान
सोन-परी धूप है उतरी आंगन, छोड़ आसमान
दे रही संकेत प्रकृति, प्रिय ! छोड़ो अभिमान।
नमन्
सुधि तेरी आई है, भीगे हैं मेरे नयन
हे अवधूत! तपस्वी साधक तुझको मेरा नमन्।
तूने ही तो गरिमा दी, पावन सरोज स्मृति को
सरस्वती की हुई वंदना, साथ लिए युवजन को
मान दिया तूने गीतों में दीनहीन भिक्षुक को
चेतनता प्रदान की तुमने वसंुधरा में जड़ को।
लहू सुखाकर लिखने वाले, ओ हिन्दी के महाप्राण!
हे अवभूत तपस्वी साधक तुमको मेरा प्रमाण।
नये पत्ते से दिया परिचय तुमने अनामिका को
अर्चना, आराधना से महिमा दी तुलसी दास को
गीतिका से सजाया, निरूपमा, अलका, आराधना को
बेला के परिमल से सुरभित किया है जग को
मुक्त छंद के उन्मेशक तुम, अर्पित है हार्दिक अभिनंदन
सुधि तेरी आई है, भीगे हैं मेरे नयन
हे अवधूत मनस्वी गायक तुझको मेरा नमन्।
तुझको मेरा नमन्।
शुभकामना
मानव की हो परिभाशा
सब बोलें प्रेम की भाशा
सत्य, अंहिसा और दया ही
जग मंगल की हो आशा।
मानव-मानव से हिलमिल
जन-गण हित कर्म करे
ऊँच-नीच का भेद मिटाकर
भारत माँ का सम्मान करे।
परहित जीवन ही श्रेयस्कर है
अध्यापक ये पाठ पढ़ाये
अनुशासन औ स्वाभिमान ही
छात्रों का सपना हो जाये।
टूटी-फूटी झोपड़ियाँ भी
आलोकित हों ज्योति पर्व में
खेत और खलिहान सज उठे
मोती से दानों की झिलमिल में।
हे नव वर्श! लाज रखनी है तुमको
इन सारे स्वपनिल बातों की
तुम संबल हो हर राही का
शपथ तुम्हें है महाकाल की।
प्रत्यावर्तन
गौरेला स्टेशन में टेªन रूकी
मनुश्य की वेदना से भी अधिक
कालिमा युक्त रक्तिम था
पश्चिम का आकाश।
क्षीण काया छोटी सी नदी
जल से अधिक बालुका राशि
गर्वोन्नत सात सात राशि
सघन-विजन-वन-वल्लरी।
देखा, द्रुतगति से चला जा रहा है
आधुनिक सभ्यता से दूर मानव
जनविहीन पगडण्डी धर
गहन अरण्य की ओर।
मैंने उसे रोकना चाहा, कुछ पूछना चाहा
पर हाय ! उसका नाम मैं नहीं जानती
शायद उसका नामकरण नहीं हुआ
वह काली माटी का बेटा आदिवासी है।
मेरी जिज्ञासा में पूर्ण विराम लगाने
वह थमा, मुस्कुराया और बोला
अब मुझे कोई भय नहीं है
मानव- अरण्य की विभीशिका से।
यहाँ मेरे सात सात भाई
और लाड़ली बहन नर्मदा
अपने स्नेह की छांव में रखेगें
सारा क्षोभ, दुख ये बांट लेगें।
अभाव में भी मुझे घेरे रहेंगे।
हाँ! मैंने देखा था,
गौरेला स्टेशन में
उसका प्रत्यावर्तन।
सुधि
सुधियों के मंदिर में, मणि कांचन दीप जले
विस्मृति की गंगा में, मन के सब पाप धुले।
आकुल आकांक्षा के भाव जगे बार-बार
मधुर! किन्तु तुम मिले नहीं
प्रीत ! किन्तु तुम मिले नहीं।
आमों की डालों पर नव पल्लव दमक उठे
शत-शत मंजरियों के भौरों ने रस लूटे
कोकिल के पंचम ने साथ दिया अंतर का
गीत! किन्तु तुम मिले नहीं
प्रीत ! किन्तु तुम मिले नहीं।
मधु-व्रत रत कलियों को मान दिया भौरों ने
धरती का आंचल संवार दिया ऋतुओं ने
मेरे सूने मन में सरगम तो ध्वनित हुआ।
छंद! किन्तु तुम मिले नहीं
प्राण! किन्तु तुम मिले नहीं।
वर्तमान
सुधियों के बादल जब गरजते हैं
मन धुंधुआता है थके नैन बरसते हैं।
समय के fपंजरे में कैद ये fजंदगी है
सुख-दुख आशा-निराशा में झूलती है।
यादें कहाँ से आईं, किधर चली जाती हैं।
मन में रहती हैं - तो मन कौन है ?
सोचती हूँ मन का परिचय क्या है ?
हाँ-मन ही अतीत की छाया हैं।
भावी की सुखद कल्पना है
समस्याओं से दूर भागने का बहाना है
जो अगोचर है उसे पकड़ने भागता है।
ओ मन! दम भर रूको सुनो-सुनते जाओ।
बिछड़ी पगडण्डी पर उलटे पांव लौट पाओगे?
वक्त से पहले मंजिल तक पहुँच पाओगे?
सुनो ! सुख दुख को गले लगाकर वर्तमान को जिओ।
विद्यमान सार्थक होगा, तभी अतीत मीठा लगेगा।
वर्तमान संतोश देगा, तभी भावी सुखद होगा।
रात शांति-प्रद होगी तब, सुबह नया जीवन होगा।
प्रति-पल को जियो शान से, तभी जनम सार्थक होगा।
यादें
यादों के दर्पण पर छवियाँ उभरती मिटती रहती हैं
कुछ सुख दे जाती है कुछ सोई व्यथा जगाती हैं।
हर शख्स के पास यादों का खजाना है,
ये बात और है कि जुदा-जुदा फसाना है।
पाकर कोई रोता है, खोकर भी कोई हँसता है,
पाने खाने का भी ये कैसा अजीब नाता है।
fजंदगी के खाते में जमा-नामे बराबर रखो
ऐ fजंदगी जीने वालों खुदा को तो याद रखो।
दिन रात तमाम करते हैं, उसका नाम लेकर
हर सांस आती है उसी का पैगाम लेकर ।
साँसें गई आँखें तो खुली हैं
उसका आना जो अभी बाकी है।
दर्द और नींद का अजीब रिश्ता है,
एक न आवे तभी दूसरा आता है।
खुशी मेरी गली से होकर गुजरती है
रकीब है वो, हाँ-तेरे पास जाती है।
ऐ दोस्त ! तेरी वादा-खिलाफी का शुक्रिया
लिखने के लिए नया माजरा तो मिला।
शेष प्रश्न
खिड़की खोलते ही,
अक्टूबर इक्तीस की
पीली, उदास, निस्तेज धूप
पालतू बिल्ली सी बिस्तर पर पसर गई
आदतन अखबार खोला
कहीं हत्या, कहीं दंगे
कहीं fहंसा, कहीं लूटपाट।
क्षुब्ध मानस तरंगायित हुआ
विचारों की लहरों पर
अनाहूत प्रश्न तिरा
प्रश्न जिद्दी बच्चे सा
बार-बार चेतना के द्वार
खट-खटाने लगा।
विवश हो द्वार खोला
प्रश्न उपfस्थ्त हुआ
अपनी समूची भयावहता
औ पूरी निरूत्तरता के साथ।
पुरूशोत्तम! तुम नर हो या नारायण?
यूं ही भूल जाते हो
प्रदत्त अमोघ वचन
क्या तुम भी बदलती राजनीति
के शिकार हो ?
तुमनें कहा था पाथ!
मरने वाला और मारने वाला,
मैं ही हूँ
तुम अनासक्त कर्म करो।
फल की ईच्छा कर
युग चेतना का द्वार
अवरूद्ध न करो।
किन्तु आज के महाभारत में
हम वही क्लीव कुंठित
शिखण्डी हैं।
जिसे अगुआ कर प्रजातंत्र के भीश्म पर
अनवरत बाण वर्शा की जा रही है।
और तुम पुनः मौन हो ?
केशव ! अगणित अश्वत्थामाओं का
रक्त क्षरण करता तन
प्रतिfहंसा से जलता मन
दुर्गंधित मवाद से प्रदूशित
करता है जन-मन
भाव भाशा धर्म की भिन्नता लिए
अगणित गांधारियाँ बैठी हैं
जनपथ में।
कितने अभिशाप झेल पाओगे तुम ?
कर्तव्य-अकर्तव्य से घिरा
मैं ही वो अर्जुन हूँ
जगद्गुरू ! अनेकता में एकता का
शेष प्रश्न अनुत्तरित है
गूँजना है अभी बाकी
कृण्वन्तो विश्वमार्यम्
कृण्वन्तो विश्वमार्यम्।
अभिलाशा
सत्य फिर से सिर उठाए
आ खड़ा है।
परम पावन पुण्य भाजन
रक्षा बंधन आ गया है।
आज बहनें रोली चंदन
आरती लेकर खड़ी हैं।
देखना कोई कलाई
नेह-बंधन से अछूती
रह न जाये।
रानी कमलावती की राखी
हुमायूँ का मणिबंध सजाए।
देश की बहनें
बलैयां लें अपने सुभाशों की
भाई करें तन मन निछावर
रक्षा में बहनों की।
राम के आंगन ईद मिलें
रहमान के घर खेलें होली
गिरजा-घर खेलें होली
गुरूद्वारे में हो दीवाली।
जगदीश्वर! मेरे भारत में
ऐसे ही त्यौहार मनें
जन-गण के पावन मानस ही
तेरे वास स्थान बनें
तेर वास स्थान बनें।
मुक्तक
अपने लहू से रगं के लम्हें गुजारते हैं हम
ऐ जिन्दगी! यूं तुझ पर रहम कर रहे हैं हम।
जिन्दगी के सफर में अकेले थे हम
यूं छोड़ जाने के लिए ही मिले थे तुम। ह
हँस-हँस के मेरी दुनिया आबाद कर दिया
हँसना वही फिर मुझको बर्बाद कर गया।
अपनों से न हो मिन्नत, गैरों से न हो शिकवा
सुख खो गया कहीं पर जाहिर न होवे दुखना।
गम की जागीर अपनी है होती सदा
इस नसीहत को हम याद रखें, सदा। नैनों से झरते मोती संभालो सरल
ये अमानत है उनकी नहीं है गरल।
पीते पीते जहर शाम हो जाएगी
थकी पलकों में फिर नींद आ जाएगी।
उलझी सी ये जिन्दगी
बे मकसद हैं सारे काम।
हर वक्त है तेरी आरजू
हर साँस है तेरे नाम।
वनराजि संरक्षण
दादी नानी से सुनी जंगलों की कहानी
पेड़, पहाड़, नदी, नालों की रवानी।
क्यों आज लगती कपोल कल्पना है?
चहुँ ओर पसरा प्रदूशित हवा-पानी।
मुरझाई पत्तियों के आँसू बहाता वृक्ष
चिड़ियों के कलरव को तरसता वृक्ष।
नंगी शाखों वाला पुश्पहीन वृक्ष
प्राण वायु देने में असमर्थ वृक्ष।
दोस्तों! वृक्षांे की पुकार सुननी होगी
वनस्पति प्रजाति की रक्षा करनी होगी।
स्वस्थ प्रदूषण-मुक्त समाज के लिए
वनराजि संरक्षण की पहल करनी होगी।
प्रकृति की पुकार
वारि, वायु और वृक्ष का
हम सब करंे संरक्षण।
प्राणि मात्र की सेवा हो
दूर करे पृथ्वी का क्षरण।
प्रकृति का यह असंतुलन
विकलांगता का पोशक है।
असुरक्षित तन, मन, जीवन
प्रदूशित पर्यावरण की देन है।
भावी पीढ़ी का निरोग जीवन
हमारे हाथों संवर्धित होगा।
ये संकल्प आज ही लेना है
पर्यावरण प्रदूशण दूर करना है।
घायल प्रकृति करे पुकार
वृक्ष लगाओ मुझे बचाओ।
धरती की चूनर हो धानी
सर्वे सुखिनः की गूँजे बानी।
पाती
प्रकृति के हम हैं लाड़ले सपूत
धरा के हम हैं भूशण
प्राणि मात्र के रक्षक हैं हम
दूर किया करते हैं प्रदूशण।
सुख दुख में हम साथ निभारे
उर्वरता के हम हैं पोशक
परोपकार में मिट जाने की
परम्परा के हम हैं रक्षक।
जलधर का आवाहन करके
सकल जगत की प्यास बुझाते
फल फूलों से हों समृद्ध हम
जीव-जन्तु की क्षुधा मिटाते।
आंगन की तुलसी भी हैं हम
वन चौपलों की आन
अमराई की शोभा हैं हम
कुटिया और महल की शान।
काटो मत हमको ऐ साथी !
हम तेरे पूर्वज की थाती,
जंगल में मंगल करना है
घर-घर भेजो तुम यह पाती।
एक बार फिर आओ
रात सपने में देखा
लाठी के सहारे झुककर खड़ा
अधमैली चादर ओढ़े
कृशकाय आजानुबाहु वृद्ध।
चेतना सुगबुगाई, इसे देखा है
बाल भारती के पन्नों पर
नगर पालिका के चौराहे पर
सरदी, गरमी, वर्शा में सजग
प्रहरी सा खड़ा।
कुछ कहूं, कुछ पूछंू, इसके पूर्व
मैंने एक प्रश्न सुना
सुनो भाई! मेरे सपनों का भारत
विश्व के मानचित में कहीं
खो गया सा लगता है।
तुमने कहीं देखा है ?
स्वर मधुर था किन्तु मेरे
हृदय पर हथौड़े की
चोटें सी पड़ने लगीं
क्या कहूं- कैसे कहूं कि
बापू! अर्धशती पूरी कर चुके
फिर भी हम राम राज्य की
स्थापना नहीं कर पाये।
शब्दों के मायने खो गए हैं
हम विरूद्धार्थ याद करने
लग पड़े हैं।
वोटों की दुकानों पर सत्ता की मदिरा
खुले आम बिकती है।
बरसात में उग आई घास सी
ये शिक्षण संस्थायें जहां
उदार भरण की विद्या
ऊँचे दामों पर सिखाते हैं।
प्रतियोगी परीक्षाओं की बाढ़ में
मौसी की कदर बढ़ी है।
बिसूरती माँ हिन्दी संविधान
के पन्नों पर जड़ी है।
बापू! इस देश की अजन्मी कन्याएँ
माता के गर्भ में ही
fहंसा का शिकार होती है।
मंदिरों मस्जिदों से
बारूद की गंध आती है।
बेरोजगार युवा पीढ़ी
आजीविका की तलाश में
आदर्श हीन हो रही हैं।
देश के भावी नागरिक
भारत के नौनिहालों को
भाई-चारे का सबक सिखाने
सत्य अfहंसा का पाठ पढ़ाने
अपने सपने के भारत में
धरा के मानचित्र पर
नयनाभिराम रंग भरने
एक बार फिर आओ बापू!
एक बार फिर आओ तुम।
पाथेय
यदि तुम मुझे न मानो
अरे! साथ न भी चल सको
कोई उपालंभ तुम्हें नहीं दूँगी
निश्चित ही कोई प्रलोभन
तुम्हारी चेतना को आच्छन्न
करता चल रहा है।
पर मैं जो खुली किताब हूँ
इसीलिए शक्ति संपन्न हूँ
लम्पटता मुझे नहीं भाती
इस लघु-काय सत्य को
क्या तुम पहचानते नहीं ?
सत्य, दया, क्षमा मेरा पाथेय है
तुम्हारे लिए मात्र उपादेय है?
यदि-नहीं-तो विदा दो बंधु!
विपरीत पथ के पथिक हैं हम
कितनी देर साथ चल पायेंगे?
जीवन मूल्यों के विनिमय में
कोई सुख मैं नहीं चाहती
नहीं चाहती तुम्हें, न तुम्हारा साथ
अपने चुने रास्ते पर एकाकी चलना
सत्यकाम की नियति रही है।
शक्ति स्तवन
छटपटाती कलम को बंद कर
सोने चली हूँ।
सुख सपनों में खोने चली हूँ।
वातानुकूलित कक्ष में उपस्थित है आराम
नहीं मिला पर मेरे मन को विश्राम।
अनवरत लहूलुहान होती है चेतना
ममताकुल हृदय में जगाती है वेदना।
अजन्मी कन्याओं की कोकिल कंठी पुकार
चैन लूट लेती है कर देती है बेकरार।
मुझे झकझोर रही हैं वो कोमल हथेलियाँ
मेंहदी जिन पर रचनी थी, सजनी थी सुहाग की कलियां।
नर और नारी का समान जन्म दर
संतुलित समाज का है आधार
सात सौ नारियों बीच नर एक हजार
असंयमित जीवन क्रम बढ़ता बलात्कार
फिर कब कहाँ कैसे आई बाधा ?
श्याम कभी पूरा होगा बिन राधा
बिन नारी नर का जीवन है आधा
विधि का विधान है ये सादा सीधा।
गूँजती है सप्तशती आज भी घर में
शक्ति स्वरूपा देवी पूजिता मंदिर में
कन्यादान सार्थक होता है आंगन में
नारी बन श्रद्धा रहती नर के मन में।
तो जागो हे मनुसंतान ! जागो हे शक्तिधर
माता, भगिनी, प्रिया का करो समादर
हेय, पाशविक, कुत्सित वासना को त्याग कर
नारी का सम्मान करो, नर! करो राश्ट्र श्रंृगार।
दान
हरे भरे सावन में मन क्यों सूखा है
महकते वसंत में वह क्यों रूखा है ?
पद, पैसा, प्रतिश्ठा को पाकर भी
मेरा यह जीवन अनवरत भूखा है।
शाश्वत इन प्रश्नों का उत्तर यही है
पाने की लालसा कभी बुझती नहीं है।
संतोश बाजार में तो बिकता नहीं है
लोभ से आदमी कभी जीतता नहीं है।
प्रभु ने जीवन देकर हमको यही सिखाया है
पाना तो नश्वर है देना ही श्रेयस्कर है।
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर दाता हैं
देना ही सुख है सबने यही सिखाया है।
प्राप्ति का गर्व इस मन पर भार है
तन,मन, धन से त्याग परोपकार है।
दान का यह पाठ प्रकृति का उपहार है
सर्वस्व निछावर करना जीवन का सार है।
दान लेकर दान दो सारे जग को जीत लो
देने पाने की कला को मूल मंत्र बना लो।
जिओ और जीने दो को जीवन लक्ष्य बना लो।
ऊँच नीच का भेद भूल कर सबको गले लगा लो।
दीपक
धरती मेरी माँ है मिट्टी का है तन मेरा
परोपकार के लिए जिऊं यह व्रत है मेरा।
आदि मानव की गुफाओं से लेकर
महलों मंदिरों की चौखटों पर।
थोड़ा सा तेल औ दो बाती लेकर
भोर तक जलता रहा अनवरत।
श्रद्धा और विश्वास बाती है
भक्ति स्नेह रूप तेल है।
प्रकाश देना मेरी नियति है
अँधेरे से जूझना मेरा धर्म है।
साथी ! ये बातें सुनो मेरी
हाँ ! यही कहानी है मेरी।
मेरा परिचय मेरा इतिहास
अथक श्रम, कर्म और साहंस।
आँधी पानी से डरो नहीं
अज्ञान से हो शत्रुता तेरी।
जग को दो प्रकाश का दान
विनती है तुमसे यह मेरी।
अवकाश प्राप्त
संभावनाओं के अंनत आकाश को छूना चाहा था
भावनाओं की अतल गहराईयों को मापना चाहता था।
जीवन के आँगन में उतरी सुरमई शाम
धरा में चहुँ ओर बिखरा जीवन ललचाता है।
भावनाओं संभावनाओं का समीकरण सुलझाते
इस जीवन के पल छिन अनवरत रहे बीतते।
कितना कुछ जानना था, कितना कुछ था करना
अपनी धरती अपने लोग, बाकी रहा इन्हें जानना।
छोड़ आई गलियों से गुजरना अब नहीं होगा
बिछुड़ दोस्तों दुश्मनों से मिलना नहीं होगा।
ये जिद्दी मन है कि मानता ही नहीं है
जी भर, आज को जीना तो जानता नहीं है।
चाहती हूँ कोई अपने खेल का संगी बना ले
घर की, बाहर की, कोई तो दो बात कर ले।
कोई अपनी सुबह और शाम में शामिल कर ले
अवकाश प्राप्त हूँ मैं कोई इसे कैसे भूले ?
किससे कहूँ अपनी, कौन यहाँ अपना है?
यहाँ हर आँख में कल का सपना है।
मैं हूँ-पर बीता हुआ कल ही तो हूँ,
हौसला बाकी है, पर वक्त की मारी हूँ।
ऐ वक्त जरा थमना
मुद्दतों बाद ख्यालों में वा मुसकुराये
चंद अशआर पेश करने चला आया।
सजी हुई महफिल किसी और की थी
रकीब की आँखांे ने फिर दिल चीर दिया।
किसकी मुसकान ने है चाँदनी का साथ दिया
किसे देख कर चाँद शरमा रहा है
हवाओं में किसके बदन की है खुश्बू
दबे पांव चलकर ये कौन आ रहा है।
किसने मेरी नब्ज पर हाथ रक्खा
कि साँसें भी सम पर चलने लगी हैं।
बहुत प्यार से है किसी ने पुकारा
विदाई की घड़ियाँ जब पास आ गई हैं।
ये मुँदती पलकों पर किसकी छुअन है
लरजते लबों पर है किसका तराना।
हारकर दिल, जिसे हरदम पुकारा
वो पास आ रहे हैं, ऐ वक्त जरा थमना।
विवशता
वातानुकूलित कक्ष है
प्रस्तुत है लिखने के सारे सरंजाम
कीमती कलम कागज लिए।
हाय! ये कैसी विवशता है
शब्द मानों कहीं खो गए हैं
संवेदनाएँ संज्ञाहीन हुई हैं।
कल्पनाओं के पर कट गए हैं
विचारों के अश्व बेलगाम हैं।
अजन्मी कन्याओं का आर्तनाद
मेरे मानस को मथ रहा है।
पाशविक fहंसा का शिकार
जन-मानस चीत्कार कर रहा है।
भूकंप पीड़ित बघेर-बार की पुकार
सुनामी का ताण्डव चुनौती दे रहा है।
क्या लिखूँ, किसकी लिखूँ
हाय ! यह कैसी विवशता है।
हरfसंगार की मंध अब नहीं लुभाती
चमकती चाँदनी अब नहीं बहलाती।
व्यर्थ हुई पूनम की शारदीय रजनी
गीत, संगीत कुछ भाता नहीं सजनी।
नहीं लिखनी मुझे राजा रानी की कहानी
लिखती रहे ये कलम, पीड़ितों की कहानी।
उपहार
धरती के माथे पर विदाई का चुंबन अंकित कर
पुरूशार्थी सूरज चला गया, धूप सोने चली है।
जग के आँगन में शांत रजनी उतर आई है।
पर नींद क्यों मुझे रात भर नहीं आती है।
कवि की यह बात पढ़ी थी बचपन में
सार समझ में आया है अब पचपन में।
अपनों से अपनी बात कहने तरसता मन
कुछ पल बिताना चाहता है उनके संग में।
पर यहाँ कोई नहीं है किसी की सुनता
जग में प्यारा है सबको सुख अपना
दुख पराया गले लगाकर सुख बाँटना
जीने की यह रीत कभी भी भूल न जाना।
कठिन बहुत है सुख दुख की परिभाशा
दो मीठे बोलों की मानव करता आशा।
सब प्रश्नों के है समाधान का एक भरोसा
तप्त हृदय को सुखद सान्त्वना देती भाशा।
भाशा का वरदान मिला केवल मानव को
हंसवाहिनी का आशीश मिला है जग को।
वसुधैव कुटुम्बकम् का है उपहार मनुज को
सार्थकता दोगे तुम्हीं, सत् साहित्य कोश को।
देश वंदन
चाहे जितना उपालंभ हो, हो कितनी भी अराजकता
फिर भी है यें देश, ये माटी मेरी भारत माता।
दुरभि संधि से दूशित राजधर्म है नहीं भाता
बढ़ती जनसंख्या, घटते रोजगार से त्रस्त जनता
साम्प्रदायिक दंगों की आग में जलता देश
अशिक्षा, गरीबी, द्वेश से आक्रांत परिवेश।
भूस्खलन, घटा जलस्तर, अहरह बढ़ता ताप।
प्रदूशित पर्यावरण से जूझता मेरा ये देश।
तो भी मुझे मोहता है झर-झर झरनों का जल
जंगलों बीच गूँजता खग कलरव।
किसानों मजदूरों का श्रम, देता है जीवन आसव
भिन्न जाति, धर्म, सम्प्रदाय प्रदान करता बल।
हाँ! भारत है मेरा देश यहाँ की माटी चंदन
भाल चूमकर रविकिरणें करती अभिनंदन।
दया, क्षमा, और शांति बिखेरे मलय पवन
ज्ञान पिपासा शांत करे, कर्मयोग का करे वरण।
यदि कोई दे आमंत्रण शत सुविधाओं वाला
नहीं चाहिए अन्य देश ना कोई हाला।
साध नहीं है किसी देश का दोयम जन होना
मेरा देश महान यहीं मुझको जीना मरना।
देश की माटी में लिखा है मेरा जीवन यापन
देश जनों की सेवा करना कर्म है मेरा पावन।
सौ बार किया स्वीकार पुनरपिजन्मं, पुनरपिमरणं
परहित जीवन fजंऊ, करूँ मैं देश का पद वंदन।
परछाईं
कपाट मूंद लेने पर भी
पगध्वनि सुनती हूँ
क्या कोई आया है ?
नहीं..... मिथ्या भ्रम है
हवा का fनः श्वास सुनती हूँ।
शब्दों की लुका छिपी
अतीत की कथा कहे
जाने कौन था दृश्टि के पार
जिसकी परछाईं घेरती है
चेतना कों बार-बार।
गोधूलित संध्या की मूक आभा
व्याप्त हो गई है भुवन में
कान लगाकर भी कहीं
नहीं सुना जाता कुछ भी
भुलुण्ठित हो गए स्वागत के फूल।
सुन रही हूँ निज हृदि-स्पंदन
नहीं पायल की रूनझन
भर गया है आसमान
मेरे दिल के छालों से
नहीं.....नहीं होगी अब कोई भूल।
नेह-बंधन
धूसर रंगों वाले पत्तों का शब्द
सारा दिन ध्वनित होता है वन में
अब मैं खो जाऊंगी
घर-घराने की कोई स्मृति
नहीं रखूंगी अपने मन में।
ऐ चांद! भूल जाऊँगी तुम्हें
भूल जाऊंगी पूरे नक्षत्र मंडल को
जो बीत गया अतीत है
कोई स्मृति नहीं रखूंगी मन में ।
सृश्टि का सार है परिवर्तन
धरा का सब कुछ है गतिमय
जो है आज, वह बनेगा कल
परिवर्तन चक्र, आगत समय
देगा एक अभिनव आज
सुदूर अंतरिक्ष को छूकर
बदलाव की आँधी आयेगी
नाश और निर्माण लायेगा-प्रलय।
जानती हूँ समय सीमित है
आकांक्षाएँ हैं अनंत असीम
धरती के हर भाग में
हाँ! उद्भासित है आनंद-प्रतिम
सुख, दुख, नेह, नाते सब
मिलते हैं किसी और ग्रह में
जहाँ जाकर मैं भूल जाऊंगी सब
और बंधूंगी नव-नेह बंधन में।
दूरी
कितने उपालभ दूं तुमको कितनी करूँ शिकायत
हार गई, रूठी मैं इसीलिए कि मुझे मनाओ तुम
कितनी चालें चलते हो जान सकूं कम से कम।
आँख मिचौली, लुका छिपी सब, भूल गए, बचपन को
नदी किनारे बना घरौंदा, खूब सजाते थे जिसको।
आँख बचा बूढ़े माली की खूब चुराते थे अमियाँ
सारा जग अपना लगता था नहीं खोज पाते कमियाँ।
बीता कब अपना बचपन, है चुपके से आया यौवन
अपनी अपनी राह चल पड़े बदल गया संबोधन
हाय-हलो तक सीमित हो गया है कब अपनापन
ख्ूाब छकाया रोजी रोटी ने, फिर दिया परायापन
सतत जीत की अँधी दौड़ में उलझा जीवन है
प्रकल्पित योजनाएँ पूरी करने हम लग पड़े हैं।
एक दूजे का हाल भी पूछें इतना वक्त नहीं है
जीवन साथी हैं हम, बीच मीलों लंबी दूरी है।
नव इतिहास
शिल्पी ओ शिल्पी !
कुछ बोलते क्यों नहीं
अरे ! कैनवास खाली क्यों है ?
सृजन बेला बीत रही है
तूलिका धरो, रंग घोलो
नहीं.....पहले कुछ बोलो।
ओ कवि ! क्षुब्ध है मन कैनवास
तूलिका कांप रही है
हाथ अवश हो रहे हैं
मेरी चेतना पथरा गई है
वक्त की तपिश में
सारे रंग सूख गए हैं।
ओ शिल्पी! सुनो विजय गान
गूँज रहा परिवर्तन का शंखनाद
युग स्रश्टा हो तुम सर्जक !
संभावनाओं के अनंत नभ में
कल्पना के सुनहरे, गुलाबी
रंग भरो, तूलिका धरो।
ओ कवि! शब्दों का इन्द्रजाल
यथार्थ को छुपा नहीं सकता
सर्वग्रासिनी fहंसा से
मृतप्राय है मानवता
नाद-ब्रह्य का आवाहन कर
मनु पुत्रों को प्रबुद्ध करो।
ओ शिल्पी ! हम दोनों ही
सृजन धर्म का पालन करेंगे
सूखने दो रंग, बह जाने दो मसि
निज कलम और तूलिका को
स्व रक्त से रंजित कर हम
मनुजता का नव इतिहास रचेंगे।
आओ दुःख
नये धान की गमक
नीलोत्पल की महक
चेतना सुवासित हो गई है।
चौंकी, फिर पाया कि
बंद खिड़की की संध से
मुंदे कपाटों की दरार से
अनाहूत-अतिथि-हवा
साधिकार चली आई है।
कातिक की सियराती हवा
सुख को भी साथ लाई है।
इसकी जाति वाचक संज्ञाएँ
अनेक हैं, जो मन में आए
उसे चुन लें अपने लिए
रही मेरी, तो मेरे लिए
सुख भी, दुःख लेकर ही
आता है, अव्यक्त गोपन दुःख।
मेरे पास सुख बाँटने वाला
नहीं है, है उसकी याद
यादें तो दुःख ही देती हैं।
सुख की बहन ईश्याZ भी
अनाहूत साथ चली आई है।
सुख जो अपनों, परायों को
ईश्याZ-कातर बना दे
दुःख का पर्याय ही तो है।
आम आदमी की मानसिकता
बदल गई है, किसी का सुख
उसके रातों की नींद
दिन का चैन लूट लेता है।
हवा! जा सुख को साथ लेजा
नहीं चाहिए ऐसा सुख
जो औरों के साथ मुझे भी
दुःख ही देता फिरता है।
सुख से तो दुःख ही अच्छा है
जिससे किसी को जलन
तो नहीं होती, नहीं छीनता
नींद पराई, नहीं लूटता चैन।
ओ मेरे दुःख ! मेरे अपने अभाव
आओ आ जाओ साथ रहेगें,
ताकि न सुनना पड़े मुझे
किसी के भी ईश्या-दग्ध बैन ।
प्रेम
उन्नीस सालों का अभ्यस्त जीवन-यापन थम गया
उमड़ती भीड़ में मैंने खुद को निपट अकेला पाया।
दया, करूणा, सहानुभूति का रेला क्रमशः थम गया
अंतर मरूभूमि हुआ, दाह, ताप, मौन पसर गया।
दया परवश हो किसी ने मेरे हाथ थमा दी गीता
पढ़ने लगी-पढ़ती रही और एक दशक बीता।
कत्तZव्य-अकत्तZव्य बांची, पढ़ी आत्मा की अमरता
अनासक्ति योग पढ़ी, बांची मनोनिग्रह, मिली असफलता।
अकुण्ठ हृदय से स्वीकारती हूँ मन कभी रमा नहीं
दुर्निवार गति से तुम्हारी आसक्ति प्राणों को खींचती है।
माला हाथ में होती है, पलकों पर बिराजते हो तुम्हीं।
सूखे मुरझाए ओठों पर तृप्त मुसकान छा जाती है।
आत्मा अमर है देह नश्वर, प्रेम रूप है, परमात्मा का
वेदों, पुराणों, ग्रंथों में वर्णित है यही भाव प्रेम का।
आत्मा अगोचर है स्पर्श माध्यम है प्रेम प्रदर्शन का
स्वीकारती हूँ, मेरा प्रेम आराधक है साकार का।
विश्राम
जीवन पथ पर चलते चलते
जाने कब फिर शाम हो गई।
छूटा पनघट बिसरी सखियाँ
व्यर्थ हो गई सारी दुनिया।
चला-चली की इस बेला में
किसकी छवि मुसकाई।
दूर कहीं बजती शहनाई।
अवयव सारे शिथिल हो चले
साँस अभी पर चलती है।
किसकी बाट जोहता है मन
आशा प्राणों को छलती है।
खोने पाने की क्रीड़ा की
सखे! आज विश्राम दो
अन्तर्मन के संघर्शो को
पावन पूर्ण विराम दो।
जीवन की पोथी पर साथी
अनिवार्य मृत्यु का हस्ताक्षर है
पंचतत्व में मिल जाना ही
पुनर्जन्म का fसंह द्वार है।
जागने से डर
आजकल मुझे जागने लगता है,
करती हूँ अनवरत आराधना निद्रा की
प्रसुप्ति आसन्न विचारों, भावनाओं से बचाती है
भावना-शून्य, निश्चेश्ट पड़े रहना अच्छा लगता है।
आजकल मुझे जागने से डर लगता है।फ
मन अनायास fचंतातुर हो जाता है
जन्मी अजन्मी कन्याओं का निश्पाप मुख
तोतली वाणी में मुझसे कहता है
मुझे भी यहाँ जीने का अधिकार है
यह दान तुम्हारा मुझ पर उपकार है।
ये जागरण ही तो मुझे डराता है
कुमारी, युवती नारी दल घेर लेता है
ये सब हैं, छिन्न वेश बलात्कार पीड़िता
नर की हेय पाशविकता स आक्रांत घर्शिता
अवांछित मातृत्व, अनकिये अपराध की सजा है
आज मुझे कुम्भ कर्णी नींद ही काम्य हैं
देवी-स्वरूपा नारी का श्राप ही प्राप्य है
नहीं चाहती जागना, पर विवेक जगाता है
सृजन क्या विधाता का अभिशाप है ?
बोलो ! तुम्हें भी जागने से डर लगता है।
खूनी साल अलविदा
ओ दो हजार पाँच ! विदा विनाशकारी!
खूब फैलाई दहशत, बिखेरी महामारी।
टूट पड़े थे हम पर भूखे शेर की तरह
साल भर आपदाओं से जूझती रही जनता बिचारी।
अमरीकी बमों का शिकार अफगानिस्तान
टिहवाल करनाह कांडी में जमींदोज इन्सान।
भूकंप बन हिलाया जो तुमने पाकिस्तान
जन धन की क्षति से रोया फिर इन्सान।
सात जुलाई, घृणा और रोश की आँधी
जातीय विद्वेश की आग, लंदन में विस्फोट।
फैशन की नगरी फ्रांस अछूती नहीं रही
खूब भड़का साम्प्रदायिक दंगा, मौत फैली।
कोढ़ में खाज तुमने दिया बर्ड फ्लू
क्यों किया तुमने ऐसा काला जादू।
दिल्ली के व्यावसायिक परिसर में विस्फोट
जली, अधजली लाशें सांघातिक चोर्ट
ओ विध्वंसक साल ! बता दूँ तेरा रहना
सद्दाम हुसैन या अमरीका, कैसा हारना ?
भूकम्प, बाढ़, कैटरीना, सुनामी किसे भूलूँ ?
ओ खूनी साल! लौटकर फिर मत आना।
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